खोया बचपन: डिजिटल युग में बचपन की यादें

खोया बचपन डिजिटल युग में बचपन की यादें

कविता

खोया-खोया सा सारा जहाँ है
बातें अब पहले सा कहाँ है,
सुना पड़ा सब गली मोहल्ला है,
हर किसी की पसंद, मोबाइल पहला है।

गिल्ली-डंडे, बैट-बॉल, किताबें,
पड़ी सब सुनसान हैं,
कल तक सबकी थी ये पहली पसंद,
आज हर कोई इससे अनजान है।

कहाँ गए वो दिन सुहाने,
जहाँ बच्चे हंसते, खेलते दीवाने,
धरती थी खेल का मैदान,
आकाश में उड़ते सपनों के जहान।

अब न खेल में है वो मज़ा,
न ही मिलते यारों के चेहरे पर खुशी का धरा,
स्क्रीन की दुनिया में खो गए हैं सब,
जीवन का असली रंग कहीं हो गया ग़ायब।

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कविता का विश्लेषण: डिजिटल युग में बचपन का बदलता चेहरा

इस कविता में बचपन की मासूमियत और खेलों की अहमियत को उजागर किया गया है। यह हमें याद दिलाती है कि कुछ साल पहले तक गली-मोहल्लों में बच्चे गिल्ली-डंडा, बैट-बॉल जैसे खेल खेला करते थे। लेकिन आज डिजिटल युग में इन खेलों की जगह मोबाइल फोन, वीडियो गेम और सोशल मीडिया ने ले ली है।

बचपन और खेलों की महत्ता

बचपन के खेल न केवल मनोरंजन के साधन होते हैं, बल्कि बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए भी आवश्यक होते हैं। ये खेल बच्चों में सामूहिकता, धैर्य, और कठिन परिस्थितियों से निपटने की कला सिखाते हैं।

आपकी राय

आपको यह कविता कैसी लगी? क्या आप भी इस बात से सहमत हैं कि डिजिटल युग ने बचपन की खुशियों को सीमित कर दिया है? आपकी क्या राय है? क्या आप भी अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं जब खेलों का आनंद और दोस्तों की हंसी जीवन का हिस्सा हुआ करती थी? अपनी राय नीचे कमेंट में साझा करें।

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